पंचामृत पर्पटी (Panchamrit Parpati) आम (अपक्व अन्न रस) और रक्तयुक्त वाहिका, संग्रहणी, अतिसार (Diarrhoea), अग्निमांद्य, उल्टी, बवासीर, बुखार, कृमि, सूजन, क्षय (Tuberculosis), पांडु (Anaemia), अम्लपित्त (Acidity) और प्रसूता स्त्रियों के ताप (बुखार), अतिसार, संग्रहणी, शिरदर्द और सूजन को दूर करती है।
सब कज्जलीयुक्त
पर्पटीयों में पंचामृत पर्पटी (Panchamrit Parpati) श्रेष्ठ है। इस पर्पटी के कार्य मध्यम कोष्ठ (Stomach) में पचनेन्द्रिय को शक्ति दायक, अंतड़ी के दोष नाशक और जंतुध्न (जन्तु नाशक) इन तीनों
प्रकार के है। पंचामृत पर्पटी का वियोजन भिन्न-भिन्न स्थानों में होता है। ग्रहणी
(Duodenum) में थोड़े भाग का शोषण होने से उस जगह के
दोष का शमन होता है। कुछ भाग यकृत (Liver) और पक्वाशय (Duodenum) में शोषण होकर लाभ पहुंचाता है। इनमें से ताम्र भस्म
विशेषतः यकृत में जाकर अपना कार्य करती है; और लोह भस्म पक्वाशय में स्तंभक और
शक्तिदायक असर पहुंचाती है। पारद, गंधक और लोह का कार्य बड़ी आंत (Large Intestine) की शक्ति को बढ़ाने के लिये होता है।
अभ्रक भस्म श्वास की इंद्रियाँ, श्वास वहन करनेवाले स्त्रोत, श्वासवह केंद्र, धातु परीपोषण क्रम (अन्न रस से सब धातु
रस, रक्त,
मांस, मेद,
अस्थि आदि का निर्माण) और मनोदेश को लाभ पहुंचाती है।
पंचामृत पर्पटी
पित्तप्रधान रोगों में भी दी जाती है। कारण, ताम्र भस्म पित्त का निःसरण करती है; और पित्त मार्ग का प्रतिबंध मिटाती है। पित्त स्थान
के मंदत्व के कारण पित्त की उत्पत्ति और स्त्राव कम होता हो, तो पर्पटी विशेष हितकर है। पुरानी संग्रहणी, पुराना क्षय जन्य अतिसार (Diarrhoea), पुराने अम्लपित्त (Acidity)
से उत्पन्न अतिसार और रक्तरहित अतिसार में रोगी की प्रकृति के अनुसार मट्ठा या दूध
के साथ देने से रोग को शीघ्र मिटाती है।
क्षयजन्य पुराना
अतिसार और पुरानी संग्रहणी में पंचामृत पर्पटी का उत्तम उपयोग होता है। अति क्षीण
हुये रोगियों को स्वर्ण पर्पटी भी दी जाती है परंतु स्वर्ण पर्पटी जब अधिक बुखार न
हो; एवं रोगी की मानसिक अवस्था विचलित न हो, तब दी जाती है। केवल क्षयजन्य विष (Toxin) के कारण अंत्र में विकृति होकर अतिसार उत्पन्न हुया
हो; फिर उससे रोगी अत्यंत क्षीण हुआ हो; और बल-मांस विहीनता की प्राप्ति हुई हो, तो स्वर्ण पर्पटी का उत्तम उपयोग होता है। स्वर्ण
पर्पटी क्षय के विष की नाशक और स्तंभक है; इसमें शोधन (शरीर को शुद्ध करने का गुण)
बिल्कुल नहीं है। पंचामृत पर्पटी में कुछ अंश में शोधन गुण भी रहा है। यह गुण भी
कोमल प्रकृतिवालों पर प्रतीत होता है। अतः शोधन गुण की आवश्यकता होने पर पंचामृत
पर्पटी दी जाती है।
पंचामृत पर्पटी
का कार्य निर्जन्तुक क्षय में विषध्न (Anti-Toxic) और धातु-परीपोषण क्रम को व्यवस्थित करने
का है। इसी हेतु से फुफ्फुस (Lungs), यकृत,
अंत्र, तीनों स्थानों में से जहां क्षय-विकृति
हुई हो, वहापर यह अपना लाभ पहुंचाती है यदि यह
विरकृति जन्तुजन्य विषप्रकोप से हुई हो, और समस्त शरीर में फैल गई हो। उस कारण से
शरीर कृश हो, तथा प्रबल अतिसार भी हो, तो स्वर्ण पर्पटी देनी चाहिये। स्वर्ण पर्पटी का
कार्य विशेषतः अंत्रवृद्धि पर होता है, और पंचामृत पर्पटी के कार्यक्षेत्र अंत्र, यकृत और फुफ्फुस प्रदेश, ये तीन है।
मात्रा: 1 से 3
रत्ती दिन में 2 से 3 बार कूड़े की छाल, पीपल के चूर्ण और शहद के साथ मिलाकर
चाटें। या भुनी हींग, सैंधा नमक और जीरे के साथ देवें। (1
रत्ती=121.5 mg)
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